श्री भगवान कहते हैं: प्रिये! अब दूसरे अध्याय के
माहात्म्य बतलाता हूँ। दक्षिण दिशा में
वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगर में देव
शर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहता था, वह अतिथियों की
सेवा करने वाला, स्वाध्याय-शील, वेद-शास्त्रों का
विशेषज्ञ, यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला और तपस्वियों
के सदा ही प्रिय था।
उसने उत्तम द्रव्यों के
द्वारा अग्नि में हवन करके दीर्घकाल तक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उस
धर्मात्मा ब्राह्मण को कभी सदा रहने वाली शान्ति नही मिली, वे परम कल्याणमय
तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन
प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य संकल्प वाले
तपस्वियों की सेवा करने लगा। एक दिन इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए
उसके समक्ष एक त्यागी संत प्रकट हुए, वे पूर्ण अनुभवी,
शान्त-चित्त थे, निरन्तर परमात्मा के चिन्तन में संलग्न
होकर वे सदा आनन्द विभोर रहते थे। उन नित्य सन्तुष्ट तपस्वी
संत को शुद्ध-भाव से प्रणाम करके.....
देव शर्मा ने
पूछा: 'महात्मन ! मुझे सदा रहने वाली शान्ति कैसे
प्राप्त होगी?' तब उन.....
आत्म-ज्ञानी संत ने कहा:
ब्रह्मन् ! सौपुर ग्राम का निवासी मित्रवान, जो बकरियों का चरवाहा है,
'वही तुम्हें उपदेश देगा।' यह सुनकर देव शर्मा ने महात्मा
के चरणों की वन्दना की और सौपुर ग्राम के लिये चल दिया,
समृद्ध-शाली सौपुर ग्राम में पहुँच कर उसने उत्तर भाग
में एक विशाल वन देखा, उसी वन में नदी के किनारे एक शिला पर
मित्रवान बैठा था, उसके नेत्र आनन्द से निश्चल हो रहे थे, वह अपलक
दृष्टि से देख रहा था।
वह स्थान आपस का स्वाभाविक
वैर छोड़कर एकत्रित हुए परस्पर विरोधी जन्तुओं से घिरा था, जहाँ उद्यान में
मन्द-मन्द वायु चल रही थी, मृगों के झुण्ड शान्त-भाव से बैठे थे और मित्रवान
दया से भरी हुई आनन्द विभोर दृष्टि से पृथ्वी पर मानो अमृत
छिड़क रहा था, इस रूप में उसे देखकर देव शर्मा का मन प्रसन्न हो
गया, वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान के पास
गया। मित्रवान ने भी अपने मस्तक को झुकाकर देव शर्मा का
सत्कार किया, तदनन्तर विद्वान ब्राह्मण देव शर्मा अनन्य चित्त
से मित्रवान के समीप गया और जब उसके ध्यान का समय समाप्त हो गया।
तब.....
देव शर्मा ने पूछा: 'महाभाग ! मैं आत्मा
का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, मेरे इस मनोरथ की
पूर्ति के लिए मुझे किसी उपाय का उपदेश कीजिए, जिसके
द्वारा परम-सिद्धि की प्राप्ति हो सके।' देवशर्मा की
बात सुनकर एक क्षण तक कुछ विचार करने के बाद.....
मित्रवान ने
कहाः 'महानुभाव ! एक समय की बात है, मैं वन के भीतर बकरियों की रक्षा कर रहा था,
इतने में ही एक भयंकर बाघ पर मेरी दृष्टि पड़ी, जो मानो सब
को खा लेना चाहता था, मैं मृत्यु से डरता था, इसलिए बाघ
को आते देख बकरियों के झुंड को आगे करके वहाँ से भाग
चला, किंतु एक बकरी तुरन्त ही सारा भय छोड़कर नदी के किनारे
उस बाघ के पास चली गयी, फिर तो बाघ भी द्वेष छोड़कर चुपचाप
खड़ा हो गया। बाघ को इस अवस्था में देखकर.....
बकरी
बोली: 'बाघ ! तुम्हें तो उत्तम भोजन प्राप्त हुआ है,
मेरे शरीर से मांस निकाल कर प्रेम पूर्वक खाओ न ! तुम इतनी देर
से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने
का विचार क्यों नहीं हो रहा है?'
बाघ बोला:
बकरी ! इस स्थान पर आते ही मेरे मन से द्वेष का भाव निकल गया,
भूख प्यास भी मिट गयी, इसलिए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना
नहीं चाहता। तब.....
बकरी बोलीः 'न जाने मैं
कैसे निर्भय हो गयी हूँ, यदि तुम जानते हो तो बताओ,' इसका
क्या कारण हो सकता है?
बाघ ने कहाः 'मैं भी
नहीं जानता, वही सामने एक वृक्ष की शाखा पर एक बन्दर था, चलो
सामने उस वृक्ष पर बैठे बन्दर से पूछते है,' ऐसा निश्चय करके वे
दोनों वहाँ से चल दिये, उन दोनों के स्वभाव में यह
विचित्र परिवर्तन देखकर मैं बहुत विस्मय में पड़ा गया,
इतने में उन्होंने उस बन्दर से प्रश्न किया। उनके पूछने
पर.....
वानर-राज ने कहाः 'श्रीमान ! सुनो, इस विषय
में मैं तुम्हें प्राचीन कथा सुनाता हूँ, यह सामने वन के भीतर जो बहुत
बड़ा मन्दिर है, उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्माजी का स्थापित किया हुआ एक
शिवलिंग है। पूर्वकाल में यहाँ सुकर्मा नामक एक बुद्धिमान ब्राह्मण
रहते थे, जो तपस्या में संलग्न होकर इस मन्दिर में उपासना
करते थे, वे वन में से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जल
से पूजनीय भगवान शंकर को स्नान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा
किया करते थे, इस प्रकार आराधना का कार्य करते हुए सुकर्मा
यहाँ निवास करते थे, बहुत समय के बाद उनके समीप किसी अतिथि
महात्मा का आगमन हुआ, भोजन के लिए फल लाकर अतिथि महात्मा को अर्पण
करने के बाद.....
सुकर्मा ने कहा: महात्मा ! मैं
केवल तत्त्वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता
हूँ, आज इस आराधना का फल मुझे मिल गया क्योंकि इस समय आप जैसे
महापुरुष ने मुझ पर अनुग्रह किया है। सुकर्मा के ये मधुर
वचन सुनकर तपस्या के धनी महात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्नता
हुई, उन्होंने एक शिलाखण्ड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख
दिया और सुकर्मा को उसके पाठ और अभ्यास के लिए आज्ञा देते
हुए.....
महात्मा ने कहाः 'ब्रह्मन् ! इससे
तुम्हारा आत्मज्ञान-सम्बन्धी मनोरथ अपने-आप सफल हो जायेगा।' यह कहकर वे
बुद्धिमान तपस्वी महात्मा सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते
अन्तर्धान हो गये। सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरन्तर गीता
के द्वितीय अध्याय का अभ्यास करने लगे, तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् अन्तःकरण
शुद्ध होकर उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई फिर वे
जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ का तपोवन शान्त हो गया।
उनमें सर्दी-गर्मी और राग-द्वेष आदि की बाधाएँ दूर हो
गयीं, इतना ही नहीं, उन स्थानों में भूख-प्यास का कष्ट
भी जाता रहा तथा भय का सर्वथा अभाव हो गया। यह सब द्वितीय
अध्याय का जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्या का ही
प्रभाव को समझो।
मित्रवान कहता हैः वानर-राज
के इस प्रकार बताने पर मैं प्रसन्नता पूर्वक बकरी और बाघ के साथ उस
मन्दिर की ओर गया। वहाँ जाकर शिलाखण्ड पर लिखे हुए गीता
के द्वितीय अध्याय को मैंने देखा और पढ़ा। उसी का
अध्यन करने से मैंने तपस्या का पार पा लिया है, अतः
भद्रपुरुष ! तुम भी सदा द्वितीय अध्याय का ही अध्यन किया करो,
ऐसा करने पर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।
श्रीभगवान कहते हैं: प्रिये ! मित्रवान के इस प्रकार आदेश देने पर देव
शर्मा ने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरन्दरपुर की राह ली। वहाँ किसी
देवालय में पूर्वोक्त आत्म-ज्ञानी महात्मा को पाकर
उन्होंने यह सारा वृत्तान्त निवेदन किया और सबसे पहले
उन्हीं से द्वितीय अध्याय को पढ़ा, उनसे उपदेश पाकर शुद्ध
अन्तःकरण वाले देव शर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धा के साथ
द्वितीय अध्याय का अध्यन करके ब्रह्म-ज्ञान में लीन होकर परम पद
प्राप्त हुआ।.....